Friday, August 29, 2014

दल-बदल के दर्शन

दल-बदल के दर्शन
डा वी एन शर्मा

पिछले कुछ महीनो में या यों कहें कि हाल के संसदीय चुनावों के ठीक पहले संसद और विधायिका के बाहर दल-बदल ने महामारी का रूप धारण कर लिया तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।  राजनीति के खिलाडियों में कुर्सी पाने की लालसा सबसे मज़बूत होती है जिसका परिणाम दल-बदल के रूप में सामने आता है. नीचे की पंक्तियों में हम भारत में दल-बदल के संक्षिप्त इतिहास और कारणों की समीक्षा करेंगे.            
भारत की राजनीति में दल-बदल ने 1967 के आम चुनाओं के बाद गंभीर रूप धारण किये जिसका नतीजा यह हुआ कि उत्तर भारत के लगभग नौ राज्यों में से कुछ में कांग्रेस को बहुत कम अंतर से स्पष्ट बहुमत मिली लेकिन बाकियों में तो बहुमत मिली ही नहीं। उस समय भी आज की तरह ही आम जनता बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार से निजात पाने के लिए तड़प रही थी जिसका नतीज़ा था 1966 -67 के दौरान समाज और  देश में सीमित अराजकता। इसका परिणाम यह हुआ कि चुनावी प्रक्रिया के शुरू होने के पूर्व से ही गैर कॉंग्रेसवाद की जड़ें जमने लगी और चुनाव में जनता स्वतः स्फूर्त तरीके से कांग्रेस-विरोध को खुलकर हवा दे रही थी. चुनाव परिणाम आने के बाद जब सरकार बनाने की कवायद शुरू हुई तो बेमेल गठजोड़ उभरकर सामने आने लगे. कुछ कांग्रेस के नेताओं ने कुछ चुनिन्दे समर्थकों को साथ लेकर नए दल या समूह की स्थापना की और कुछ हेराफेरी, कुछ लेनदेन करके मुख्यमंत्री बन बैठे। संयुक्त विधायक दल या यूनाइटेड फ्रंट के सरकारों की स्थापना के साथ साथ अनैतिक गठबंधनों का दौर भी यहीं से शुरू हुआ. हर कोई अपने को उच्च कोटि का नेता बताने लगा और सरकार का मुखिया का पद हथियाने के लिए साजिश रचने में लग गया. यही दौर था जिसमे आया राम - गया राम की एक नयी प्रजाति का प्रादुर्भाव हुआ. हर कुछ महीनों में सरकारें गिरने और बनने लगीं। इसका सीधा सम्बन्ध अस्थिर सरकारों के बनने बिगड़ने से जुड़ गया, यहां तक की सिर्फ चार दिनों के लिए भी सरकारें बनी और गिरीं। 

एक दो साल के इस असफल प्रयोग से जनता में यह सन्देश स्पष्ट रूप से गया कि इस तरह के सुबह शाम के जोड़-तोड़ के गठबंधन की सरकार से कुछ लालची नेताओं का भला हो सकता है आम जनता का तो कतई नहीं। इसका फायदा कांग्रेस को मिला। तमिलनाडु छोड़कर शायद वह उन सभी जगहों में ताज़े चुनाव के बाद बहुमत लाने में सफल रही। इस तरह गैर कॉंग्रेसवाद कुछ दिनों के लिए गर्त में चला गया. वर्ष 1975 में इमरजेंसी की घोषणा के बाद कांग्रेस विरोधी पुनः एक मंच पर आये, 1977 में केंद्र तथा कई राज्यों के चुनाओं में बहुमत हासिल किये और सरकारें बनायी पर दो वर्षों के अंदर फिर वही ढाक के तीन पात. 1980 के आम चुनाव में कांग्रेस पुनः सत्ता में वापस आयी. यहां यह बता देना जरुरी है कि तबतक दल-बदल की चलन सिर्फ संसद और विधायिका के सदस्यों के बीच ही सीमित थी क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध सरकार के बनने बिगड़ने से था और इसके पीछे मंत्रिपद पाने की इच्छा और उससे उपजे व्यक्तिगत फायदे पर नज़र होती थी. लेकिन तबतक राजनीति के खिलाडियों को यह भी समझ में आ गया कि अगर आमजनों में राजनीति के प्रति सुचिता का दिखावा ही सही होना है तो सांसदों और विधायकों में सिद्धांतविहीन दल-बदल के बढ़ते हुए नासूर का इलाज़ होना अति आवश्यक है.  दल-बदल के शुरू से अबतक के इतिहास में एक बात जो रेखांकित करने लायक है वह यह कि सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टियां या मार्क्स के दर्शन से प्रभावित पार्टियों के सदस्य ही इस राजनैतिक अनैतिकता के खेल से बाहर रहे . 
इस सोच का अगला कदम यह था कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद के 1984 के चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को लोक सभा में 402 सीटें प्राप्त हुई और दलबदल विरोधी क़ानून भी उसी समय बना जिसमे दल-बदल की शर्तों को थोड़ा कठिन किया गया. यह क़ानून आज भी लागू है पर यह भी सिर्फ संसद और विधायिका के सदस्यों को नियंत्रित करने में क्रियाशील है. यानि एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाने वाले राजनीति से सम्बंधित लोगो पर इस क़ानून का कोई प्रभाव नहीं होता। 
समय के साथ साथ दल-बदल की स्थिति में परिवर्तन हुए और राज्य सभा के चुनाव में दल-बदल किये बिना भी विधायकों के धन प्राप्ति का योग बना. इसके लिए अन्य कानूनो के तहत कार्रवाई तो हो सकती है और कुछ विधायकों पर मुकदमे चले भी लेकिन क़ानून निर्माताओं ने इसे दल-बदल विरोधी क़ानून से बाहर रखा. 
जैसा की प्रारम्भ में कहा गया संसद के बाहर दल-बदल एक गंभीर समस्या के रूप में हाल के संसदीय चुनावों के ठीक पूर्व खड़ी हुई लेकिन उसके बाद तो यह दिन बदिन राजनीतिज्ञों की नैतिकता को नीचले पायदान पर धकेल रही है. हर हाल में चुनाव जीतने कि इच्छा ने दल-बदल को हाल साल के दिनों में संसद और विधायिका के अंदर से बाहर ला खड़ा किया है. कांग्रेस और उसके समर्थक दलों के भ्रष्टाचार और निक्कमेपन की कहानियों के अलावा भाजपा के अकेले दम लोक सभा में बहुमत पाने और अपने संगी दलों के साथ मिलकर सुरक्षित बहुमत तक पहुँचने के कई मार्ग दल-बदल के माध्यम से भी बने और बहुत सालों बाद भारत की राजनीति को एकतरफा होने का मौका मिला। चूँकि इस देश में हर वक्त कहीं न कहीं कोई न कोई चुनाव की प्रक्रिया चलती रहती है दल-बदल का कारनामा भी अनवरत चलता रहता है.
संसद के चुनाव के परिणाम पर बहसें अभी चौक चौराहों पर खत्म नहीं हुई कि विधान सभा के उपचुनाव हो गए. अब तैयारी है कुछ विधान सभाओं के चुनावों की जिससे साथ में जुडी है दल-बदल की सरगर्मी भी. हर पार्टी और हर संभावित उम्मीदवार आँख मिचौली के खेल में व्यस्त है. एक दल बदलू का नयी पार्टी के कार्यालय में स्वागत भाषण हो रहा होता है उसकी त्यक्ता पार्टी प्रेस कांफ्रेंस में 'कुछ असर नहीं पड़नेवाला' बयान देती है. स्पष्ट रूप से इसमें न तो दल बदलू के न नयी या पुरानी पार्टी के राजनीति का कोई सिद्धांत आड़े आता है. छोटी पार्टी, बड़ी पार्टी, राष्ट्रीय पार्टी, क्षेत्रीय पार्टी, गम्भीर सिद्धांत या छिछोरी सिद्धांतों पर खड़ी पार्टी में सभी अंतर समाप्त मान लिए गए हैं. अब अधिकतर उम्मीदवार हर हाल में चाहे कुछ भी हो, कैसी भी तिकड़म करनी पड़े चुनाव का पार्टी टिकट और जीत ही लक्ष्य के रूप में देखते है. सही भी है जन सेवा संसद और विधायिका में बैठे बिना नहीं हो सकती क्योंकि जनता को व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से कुछ मदद पहुंचा सकने की स्कीम उन्ही के माध्यम से फलित होती है. तो फिर सिद्धांतों का क्या काम? इसके बावजूद भारतीय मानसिकता में आदर्श की बची हुई पुट किसी भी तरह के दल-बदल को अनैतिक मानती है और इसे पचा नहीं पाती क्योंकि वह इसमें व्यापार प्रबंधन के गुणों से संचालित बदलती राजनीति को जिसमे आदर्श विलुप्त हो जाता है और सिर्फ और सिर्फ लाभयुक्त परिणाम पर निगाहें टिकी होती हैं के परिपेक्ष्य में ठीक से मूल्यांकन नहीं कर पाता.

राजनीति में हो रही इन मुलभुत परिवर्त्तनो को मान्यता न दे सकनेवाला समाज का वह तबका ऐसे राजनीतिज्ञों  के चरित्र और उसके राजनीतिक दर्शन पर उंगली उठाती है तथा उसे गिरी हुई निगाहों से देखती परखती है. आमजनों में ऐसे नज़रिये का उत्त्पन होना कोई अनहोनी नहीं है. वे जिन्हे भाग्यविधाता मानकर शासन की बागडोर देने के लिए मत देते हैं उसे ठोक पीटकर पहले देख लें यह तो एक जागृत समाज का लक्षण होना चाहिए। लेकिन दल-बदल का पूरा कृत्य पैसे के दम पर होता है जिसमे समाज के ऊपरी धड़े के लोगों का वर्चस्व होता है. तो दल-बदल से आहत लोग शायद मध्यम वर्गीय समाज में ही बचे हुए हैं. आर्थिक रूप से विपन्न समाज में बहुत कम ही व्यक्ति ऐसे बचे हैं जो सिद्धांत विहीन राजनीति का विरोध करते हों. क्योंकि उनके लिए मतदान का आधार सिर्फ उम्मीदवार या दल नहीं होता, तात्कालिक आर्थिक लाभ भी होता है जो गरीबी के क्षणिक निदान को मत में परिवर्तित करने में मदद करता है.   

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